नैतिकता की दुहाई देने वाले नेताजी का घर बना भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा अड्डा!,,, आयुश और अंशुल जैसों के पीछे मास्टरमाइंड कौन?

नरेश सोनी

दुर्ग। राजनीति में नैतिकता और सुचिता की दुहाई देने वाले नेताजी ने अपने कुछ लोगों के मार्फत ऐसा जाल फैलाया कि उनका अपना घर ही भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा अड्डा बन गया। नेताजी खुद तो लालम-लाल हो ही रहे हैं, उनके दोनों बेटे भी सशरीर भ्रष्टाचार में डूबकी लगा रहे हैं। नगर निगम के टेंडर चुन-चुन बाँटे जा रहे हैं और उसके ऐवज में अपनी खुद की जेबें गर्म भरने का उपक्रम बदस्तूर जारी है। टेंडर चाहे हाईमास्ट लाइट का हो या फिर सड़क अथवा दीगर निर्माण कार्यों का, सारे ठेके या तो नेताजी के समर्थक उठा रहे हैं या फिर समर्थकों के जरिए बाँटे जा रहे हैं। इससे दोहरी और तिहरी कमाई हो रही है। हर महीने करोड़ों रूपयों के टेंडर होने की खबर है। इनमें कमीशनबाजी का हिसाब-किताब भी अलग है। इस पर नगर निगम के शीर्ष पर एक रबर स्टैम्प का बिठा दिया गया है। विडंबना है कि परिवारवाद की राजनीति करने वाले ऐसे ही लोग जनसेवा और समर्पण का दिखावा करते नहीं थक रहे।

पिता की राजनीतिक विरासत संभालने के बाद नेताजी ताउम्र सिर्फ श्रेय लेने की राजनीति करते रहे। तब भी, जब दुर्ग में पूरी तरह से भाजपा की सत्ता थी और यहां का विधायक ५-५ विभागों का मंत्री हुआ करता था। नेताजी तब भी इतिहास पुरूष और विकास पुरूष बनने का ढोंग रचते रहे और अब भी रच रहे हैं। जबकि पूरा शहर समस्याओं से हायतौबा कर रहा है। शहर में मुख्य सड़कों को तो छोड़ ही दो, गली-मोहल्लों की सड़कें भी रो-रोकर बेहाल हो चुकीं हैं। आधे से ज्यादा शहर में पानी के लिए त्राहिमाम मचा है। आम लोगों में एक अजीब किस्म की बेचैनी और गुस्सा है। लेकिन नेताजी है कि अब भी हालातों को भाँप नहीं पा रहे हैं। वे इन समस्याओं के बीच से भी अपने लिए श्रेय की पैतरेबाजी निकालकर खुश हो रहे हैं। नगर निगम में कांग्रेस की सत्ता आई तो उन्हें अपने बेरोजगार बेटों के लिए नए अवसर मिल गए। लेकिन बेटों को आगे करने से बदनामी होने का डर था। इसलिए आयुश और अंशुल जैसी कठपुतलियों को आगे करके उनकी बागडोर अपने हाथों में थाम ली। अब यही आयुश और अंशुल ठेकेदारों के ठेकेदार बने बैठे हैं और उन्हें चला रहे हैं नेताजी और उनके बेटे। …और इस खेल के लिए बाकायदा एक दफ्तर भी खोला गया है, जहां नगर निगम के जरिए अपनी जेबें भरने के नए-नए तरीकों पर चर्चा होती है। लेन-देन से लेकर कई तरह की रणनीतियां इसी दफ्तर में बनाई जाती है।

नेताजी आजीवन अपने पिता के नाम पर राजनीति करते रहे और अब उनके बेटे अपने पिता और दादा के नाम पर राजनीति करने मैदान में हैं। कांग्रेस की चुनावी प्रक्रिया में भागीदार उनका एक बेटा कई नेताओं की चरण वंदना कर चुका है और कई प्रमुख लोगों द्वारा नकारा भी जा चुका है। अब बेटे को संगठन में स्थापित करना नेताजी के लिए नाक की लड़ाई बन चुका है, इसलिए चारों ओर से चक्रव्यूह तैयार किया जा रहा है। बेटे की पहचान बस इतनी ही है कि वह नेताजी का पुत्र है। नेताजी को दुर्ग शहर में घेरने के लिए कई लोगों ने लामबंदी कर रखी है। अब इन्हीं लोगों ने परिवारवाद की राजनीति से आजीज आकर बेटे को हरवाने का बीड़ा भी उठाया है। वैसे, बेटे की वरदहस्ती में उसका एक समर्थक भी दुर्ग से चुनाव मैदान में है। उसे हरवाने के लिए नेताजी के विरोधियों ने कई प्रत्याशियों को मैदान में उतार दिया है। समर्थकों का साफ कहना है कि नेताजी अब बदल गए हैं। उनके तेवर-मिजाज सब कुछ परिवर्तित हो चुका है। शायद एक वजह यह भी है कि उनके अपने घर से भ्रष्टाचार की सड़ांध उठने लगी है। लोग तो यह तक कह रहे हैं कि डेढ़ साल का वक्त बचा है। उसके बाद नेताजी और उनकी परिवारवाद की राजनीति का दफ्न होना तय है।

वैसे, नेताजी के कहने पर काम चाहे न हो, लेकिन वे निर्देश बहुत बढिय़ा देते हैं। जब कोई व्यक्ति उनके पास पहुंचता है तो उसे उसी अंदाज में आश्वासन भी परोसा जाता है। …और अनुशंसा करने में तो नेताजी का कोई जवाब ही नहीं है। यह दीगर बात है कि अधिकारियों तक जब उनकी अनुशंसा पहुंचती है तो उसका असल ठिकाना रद्दी की टोकरी होती है।

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